धंसता जोशीमठ
ये सर्दी का मौसम , पहाड़ों की बस्ती ;
दरकते आशियानों से , हालत है खस्ती ।
हर जीवन पर खतरा , हों बाहर या अंदर ;
पर जायें कहां अब , गति सांप और छुछंदर ।
कभी सोचा नहीं था , दिन ऐसा भी आयेगा ;
अच्छा भला आशियाना अब , ऐसे ढह जायेगा ।
सैकड़ों मकानों का , एक जैसा ही हाल है ;
छत और दीवारें फटी , जीवन बेहाल है ।
कुदरत का सितम है यह , या मानवी भुल है ;
मंडराता दुःख सिर पर , सब सोचना फिजूल है ।
राजनीति हो रही खुब , इस आफत काल में ;
थम रहा न आंसु अब , जी है जंजाल में ।
धंस कर के आशियाना , जिसका टुट जायेगा ;
उम्र भर की सब कमाई , जल में बह जायेगा ।
मानवता का इस घड़ी में , बस यही तकाजा है ;
सरकारें शीघ्र जागृत हों , घाव अभी ताजा है ।
एक बार समय अगर , हाथ से निकल जायेगा ;
मच जाएगा हाय तौबा , तब कुछ भी न हो पायेगा ।
मुठ्ठी के रेत जैसे , समय देखो फिसल रहा है ;ऐसे नाज़ुक घड़ी में भी , अभी राजनीति ही चल रहा है ।
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