संशय के रहते कार्यसिद्धि नहीं

संशय के रहते कार्यसिद्धि नहीं

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के तत्काल ही भगवप्राप्ति रूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि जैसे सूर्योदय होने के साथ ही उसी क्षण अन्धकार का नाश होकर सब पदार्थ प्रत्यक्ष हो जाते हैं, उसी प्रकार परमात्मा के तत्त्व का ज्ञान होने पर उसी क्षण अज्ञान का नाश होकर परमात्मा के स्वरूप की प्राप्ति हो जाती है। अभिप्राय यह है कि अज्ञान और उसके कार्यरूप वासनाओं के सहित राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकारों का तथा शुभाशुभ कर्मों का अत्यन्त अभाव, परमात्मा के तत्त्व का ज्ञान एवं परमात्मा के स्वरूप की प्राप्ति-ये सब एक ही काल में होते हैं और विज्ञानानन्दधन परमात्मा की साक्षात् प्राप्ति को ही यहाँ परम शान्ति के नाम से कहा गया है।

अज्ञश्चवाश्रद्धाानश्चव संशयात्मा विनश्यति।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।। 40।।

प्रश्न-‘अज्ञः‘ और ‘अश्रद्धानः’ इन दोनों विशेषणों के सहित ‘संशयात्मा’ पद कैसे मनुष्य का वाचक है और वह परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-जिसमें सत्य-असत्य और आत्म-अनात्म पदार्थों का विवेचन करने की शक्ति नहीं है इस कारण जो कर्तव्य-अकर्तव्य आदि का निर्णय नहीं कर सकता, ऐसे विवेक-ज्ञान-रहित मनुष्य का वाचक यहाँ ‘अज्ञः’ पद है; जिसकी ईश्वर और परलोक में, उनकी प्राप्ति के उपाय बतलाने वाले शास्त्रों में, महापुरुषों में और उनके द्वारा बतलाये हुए साधनों में एवं उनके फल में श्रद्धा नहीं है-उसका वाचक ‘अश्रद्धानः‘ पद है तथा ईश्वर और परलोक के विषय में या अन्य किसी भी विषय में जो कुछ भी निश्चय नहीं कर सकता, प्रत्येक विषय में संशययुक्त रहता है-उसका वाचक ‘संशयात्मा’ पद है। जिस संशयात्मा मनुष्य में उपर्युक्त अज्ञता और अश्रद्धालुता ये दोनों दोष हों उसका वाचक यहाँ ‘अज्ञः’ और अश्रद्धानम्’ इन दोनों विशेषणों के सहित ‘संशयात्मा’ पद है। ‘वह परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है।’ इस कथन से यह भाव दिखाया गया है कि वेद-शास्त्र और महापुरुषों के वचनों को तथा उनके बतलाये हुए साधनों को ठीक-ठीक न समझ सकने के कारण तथा जो कुछ समझ में आवे उस पर भी विश्वास न होने के कारण जिसको हरेक विषय में संशय होता रहता है जो किसी प्रकार भी अपने कर्तव्य का निश्चय नहीं कर पाता, हर हालत में संशययुक्त रहता है वह मनुष्य अपने मनुष्य जीवन को व्यर्थ ही खो बैठता है, उससे हो सकने वाले परम लाभ से सर्वथा वंचित रह जाता है। किन्तु जिसमें हरेक विषय को स्वयं विवेचन करने की शक्ति है और जिसकी वेद शास्त्र और महापुरुषों के वचनों में श्रद्धा है वह इस प्रकार नष्ट नहीं होता, वह उनकी सहायता से अर्जुन की भाँति अपने संशय का सर्वथा नाश करके कर्तव्य परायण हो सकता है और कृतकृत्य होकर मनुष्य जन्म को सफल बना सकता है तथा जिसमें स्वयं विवेचन करने की शक्ति नहीं है ऐसा अज्ञ मनुष्य भी यदि श्रद्धालु हो तो श्रद्धा के कारण महापुरुषों के कथनानुसार संशय रहित होकर साधन परायण हो सकता है और उनकी कृपा से उसका भी कल्याण हो सकता है परन्तु जिस संशय युक्त पुरुष में न विवेक शक्ति है और न श्रद्धा ही है उसके संशय के नाश का कोई उपाय नहीं रह जाता इसलिये जब तक उसमें श्रद्धा या विवेक नहीं आ जाता उसका अवश्य पतन हो जाता है।

प्रश्न-‘संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है न परलोक है और न सुख ही है’ इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इस कथन से यह भाव दिखाया है कि संशययुक्त मनुष्य केवल परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है इतनी ही बात नहीं है, जब तक मनुष्य में संशय विद्यमान रहता है, वह उसका नाश नहीं कर लेता, तब तक वह न तो इस लोक में यानी मनुष्य शरीर में हुए धन, ऐश्वर्य या यश की प्राप्ति कर सकता है, न परलोक में यानी मरने के बाद स्वर्गादि की प्राप्ति कर सकता है और न किसी प्रकार के सांसारिक सुखों को ही भोग सकता है; क्योंकि जब तक मनुष्य किसी भी विषय में संशययुक्त रहता है, कोई निश्चय नहीं कर लेता, तब तक वह उस विषय में सफलता नहीं पा सकता। अतः मनुष्य को श्रद्धा और विवेक द्वारा इस संशय का अवश्य ही नाश कर डालना चाहिये।

योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।

आत्मवन्तं न कर्माणि निबधन्ति धनंजय ।। 41।।

प्रश्न-‘योगासंन्यस्तकर्माणम्’ इस पद में ‘योग’ शब्द का अर्थ ज्ञान योग मानकर इस पद का अर्थ ज्ञान योग के द्वारा शास्त्र विहित समस्त कर्मों का स्वरूप से त्याग करने वाला मान लिया जाय तो क्या आपत्ति है? 
उत्तर-यहाँ स्वरूप से कर्मों के त्याग का प्रकरण नहीं है। इस श्लोक में जो यह बात कही गयी है कि ‘योग द्वारा कर्मों का संन्यास करने वाले मनुष्य को कर्म नहीं बाँधते, इसी बात को अगले श्लोक में ‘तस्मात्’ पद से आदर्श बतलाते हुए भगवान् ने अर्जुन को योग में स्थित होकर युद्ध करने के लिये आज्ञा दी है। यदि इस श्लोक मेें ‘योगसंन्यस्त कर्माण्म’ पद का स्वरूप से कर्मों का त्याग अर्थ भगवान् को अभिप्रेत होता तो भगवान् ऐसा नहीं कहते। इसलिये यहाँ ‘योगसंन्यस्तकर्माणम्’ का अर्थ स्वरूप से कर्मों का त्याग कर देने वाला न मानकर कर्मयोग के द्वारा समस्त कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग करके उन सबको परमात्मा में अर्पण कर देने वाला त्यागी मानना ही उचित है; क्योंकि उक्त पद का अर्थ प्रकरण के अनुसार ऐसा ही जान पड़ता है।
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