ज्ञान पाने के लिए श्रद्धा जरूरी

ज्ञान पाने के लिए श्रद्धा जरूरी

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-‘इह’ पद के प्रयोग का क्या भाव है?

उत्तर-‘इह’ पद के प्रयोग से यह भाव दिखलाया गया है कि प्रकृति के कार्यरूप इस जगत् में ज्ञान के समान कुछ भी नहीं है, सबसे बढ़कर पवित्र करने वाला ज्ञान ही है। किन्तु जो इस प्रकृति से सर्वथा अतीत, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, सर्वलोक, महेश्वर, गुणों के समुद्र, सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार स्वरूप परमेश्वर इस प्रकृति के अध्यक्ष हैं, जिनके स्वरूप का साक्षात् करने वाला होने से ही ज्ञान की पवित्रता है, वे सबके सुदृढ़, सर्वाधार परमात्मा तो परम पवित्र है; उनसे बढ़कर यहाँ ज्ञान को पवित्र नहीं बतलाया गया है क्योंकि परमात्मा के समान ही दूसरा कोई नहीं है, तब उनसे बढ़कर कोई कैसे हो सकता है? इसीलिये अर्जुन ने कहा भी है-‘परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमंभवान्।’ अर्थात आप परब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं तथा भीष्मजी ने भी कहा है-‘पवित्राणां पवित्रं यो मंगलानां च मंगलम्। ‘अर्थात् वे परमेश्वर पवित्र करने वालों में अतिशय पवित्र और कल्याणों में भी परम कल्याण स्वरूप हैं।

प्रश्न-‘योगसंसिद्धः’ पद किसका वाचक है और ‘वह उस ज्ञान को अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है’ इस कथन का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-कितने ही काल तक कर्मयोग का आचरण करते-करते राग-द्वेष के नष्ट हो जाने से जिसका अन्तःकरण स्वच्छ हो गया है, जो कर्मयोग में भलीभाँति सिद्ध हो गया है; जिसके समस्त कर्म ममता, आसक्ति और फलेच्छा के बिना भगवान् की आज्ञा के अनुसार भगवान् के ही लिये होते हैं-उसका वाचक यहाँ ‘योग संसिद्धः’ पद है। अतएव इस प्रकार योग संसिद्ध पुरुष उस ज्ञान को अपने-आप आत्मा में पा लेता है-इस वाक्य से यह भाव समझना चाहिये कि जिस समय उसका साधन अपनी सीमा तक पहुँच जाता है, उसी क्षण परमेश्वर के अनुग्रह से उसके अन्तःकरण में अपने-आप उस ज्ञान का प्रकाश हो जाता है। अभिप्राय यह है कि उस ज्ञान की प्राप्ति के लिये उसे न तो कोई दूसरा साधन करना पड़ता है और न ज्ञान प्राप्त करने के लिये ज्ञानियों के पास निवास ही करना पड़ता है; बिना किसी दूसरे प्रकार के साधन और सहायता के केवल कर्मयोग के साधन से ही उसे वह ज्ञान भगवान् की कृपा से अपने-आप ही मिल जाता है।

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।

ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।। 39।।

प्रश्न-‘श्रद्धावान्’ पद कैसे मनुष्य का वाचक है और वह ज्ञान को प्राप्त होता है, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-वेद, शास्त्र, ईश्वर और महापुरुषों के वचनों में तथा परलोक में जो प्रत्यक्ष की भाँति विश्वास है एवं उन सबमें परम पूज्यता और उत्तमता की भावना है-उसका नाम श्रद्धा है; और ऐसी श्रद्धा जिसमें हो, उसका वाचक ‘भगवान्’ पद है। अतः उपर्युक्त कथन का यहाँ यह भाव है कि ऐसा श्रद्धावान् मनुष्य ही ज्ञानी महात्माओं के पास जाकर प्रणाम, सेवा और त्रियुक्त प्रश्न आदि के द्वारा उनसे उपदेश प्राप्त करके ज्ञान योग के साधन से या कर्मयोग के साधन से उस तत्त्वज्ञान को प्राप्त कर सकता है; श्रद्धारहित मनुष्य उस ज्ञान की प्राप्ति का पात्र नहीं होता।

प्रश्न-बिना श्रद्धा के भी मनुष्य महापुरुषों के पास जाकर प्रणाम, सेवा और प्रश्न कर सकता है; फिर ज्ञान की प्राप्ति में श्रद्धा को प्रधानता देने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-बिना श्रद्धा के उनकी परीक्षा के लिये, अपनी विद्वत्ता दिखलाने के लिये और मान-प्रतिष्ठा के उद्देश्य से या दम्भाचरण के लिये भी मनुष्य महात्माओं के पास जाकर प्रणाम, सेवा और प्रश्न तो कर सकता है, पर इससे उसको ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती; क्योंकि बिना श्रद्धा के किए हुए यज्ञ, दान, तप आदि सभी साधनों को व्यर्थ बतलाया गया है। इसलिये ज्ञान की प्राप्ति में श्रद्धा ही प्रधान हेतु है। जितनी अधिक श्रद्धा से ज्ञान के साधन का अनुष्ठान किया जाता है, उतना ही अधिक शीघ्र वह साधन ज्ञान प्रकट करने में समर्थ होता है।

प्रश्न-ज्ञान-प्राप्ति में यदि श्रद्धा की प्रधानता है, तब फिर यहाँ श्रद्धावान् के साथ ‘तत्परः’ विशेषण देने की क्या आवश्यकता थी?

उत्तर-साधन की तत्परता में भी श्रद्धा ही कारण है और तत्परता श्रद्धा की कसौटी है। श्रद्धा की कमी के कारण साधन में अकर्मण्यता और आलस्य आदि दोष आ जाते हैं। इससे अभ्यास तत्परता के साथ नहीं होता। श्रद्धा के तत्त्व को न जानने वाला साधक लोग अपनी थोड़ी-सी श्रद्धा को भी हुत मान लेते हैं; पर उससे कार्य की सिद्धि नहीं होती, तब वे अपने साधन में तत्परता की त्रुटि की ओर ध्यान न देर यह समझ लेते हैं कि श्रद्धा होने पर भी भगवत्प्राप्ति नहीं होती। किन्तु ऐसा समझना उनकी भूल है। वास्तव में बात यह है कि साधन में जितनी श्रद्धा होती है, उतनी ही तत्परता होती है। जैसे एक मनुष्य का धन में प्रेम है, वह कोई व्यापार करता है। यदि उसको यह विश्वास होता है कि इस व्यापार से मुझे धन मिलेगा, तो वह उस व्यापार में इतना तत्पर हो जाता है कि खाना-पीना, सोना, आराम करना आदि के व्यक्ति क्रम होने पर तथा शारीरिक क्लेश होने पर भी उसे उसमें कष्ट नहीं मालूम होता; बल्कि धन की वृद्धि से उत्तरोत्तर उसके चित्त में प्रसन्नता ही होती है। इसी प्रकार अन्य सभी बातों में विश्वास से ही तत्परता होती है। इसलिये परम शान्ति और परम आनन्ददायक, नित्य विज्ञानानन्दधन परमात्मा की प्राप्ति का साक्षात् द्वार जो परमात्मा के तत्त्व का ज्ञान है, उसमें और उसके साधन में श्रद्धा होने के बाद साधन में अतिशय तत्पराता का होना स्वाभाविक ही है। यदि साधन में तत्परता की कमी है तो समझना चाहिये कि श्रद्धा की अवश्य कमी है। इसी बात को जनाने के लिये ‘श्रद्धावान्; के साथ ‘तत्परः’ विशेषण दिया गया।

प्रश्न-श्रद्धा और तत्परता दोनों होने पर तो ज्ञान की प्राप्ति होने में कोइ्र शंका ही नहीं रहती, फिर श्रद्धावान् के साथ दूसरा विशेषण ‘संयतेन्द्रियः’ देने की क्या आवश्यकता थी?

उत्तर-इसमें कोई सन्देह नहीं कि श्रद्धापूर्वक तीव्र अभ्यास करने से पापों का नाश एवं संसार के विषय भोगों में वैराग्य होकर मन सहित इन्द्रियों का संयम हो जाता है और फिर परमात्मा के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान भी हो जाता है; किन्तु इस बात के रहस्य को न जानने वाला साधक थोड़े-से अभ्यास को ही तीव्र अभ्यास मान लेता है; उससे कार्य की सिद्धि होती नहीं इसलिये वह निराश होकर उसको छोड़ बैठता है अतएव साधक को सावधान करने के लिये ‘संयतेन्द्रियः’ विशेषण देकर यह बात बतलायी गयी है कि जब तक इन्द्रिय और मन अपने काबू में न आ जायँ तब तक श्रद्धापूर्वक कटिबद्ध होकर उत्तरोत्तर तीव्र अभ्यास करते रहना चाहिये; क्यांेकि श्रद्धापूर्वक तीव्र अभ्यास की कसौटी इन्द्रिय संयम ही है। जितना ही श्रद्धापूर्ण तीव्र अभ्यास किया जाता है, उत्तरोत्तर उतना ही इन्द्रियों का संयम होता जाता है। अतएव इन्द्रिय संयम की जितनी कमी है, उतनी ही साधन में कमी समझनी चाहिये और साधन में जितनी कमी है, उतनी ही श्रद्धा में त्रुटि समझनी चाहिये-इसी बात को जनाने के लिये ‘संयतेन्द्रियः’ विशेषण दिया गया है।
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