दृव्य यज्ञ से श्रेष्ठ है ज्ञान यज्ञ

दृव्य यज्ञ से श्रेष्ठ है ज्ञान यज्ञ

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-इस प्रकरण में जो भिन्न-भिन्न यज्ञों के नाम से भिन्न-भिन्न प्रकार के साधन बतलाये गये हैं, वे ज्ञान योगी के द्वारा किये जाने योग्य हैं या कर्मयोगी के द्वारा?

उत्तर-चैबीसवें श्लोक में जो ‘ब्रह्मायज्ञ’ और पचीसवें श्लोक के उत्तरार्द्ध में जो आत्मा-परमात्मा का अभेद दर्शन रूप यज्ञ बतलाया गया है, उन दोनों का अनुष्ठान तो ज्ञानयोगी ही कर सकता है, कर्मयोगी नहीं कर सकता; क्योंकि उनमें साधक परमात्मा से भिन्न नहीं रहता। उनको छोड़कर शेष सभी यज्ञों का अनुष्ठा ज्ञानयोगी और कर्मयोगी दोनों ही कर सकते है; उनमें दोनों के लिये ही किसी प्रकार की अड़चन नहीं है।

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।

कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे।। 32।।

प्रश्न-इसी प्रकार और भी बहुत तरह के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार से कहे गये हैं, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि मैंने जो तुमको ये साधन रूप यज्ञ बतलाये हैं, इतने ही यज्ञ नहीं हैं, किन्तु इनके सिवा और भी प्रतीक उपासनादि बहुत प्रकार के यज्ञ यानी परमात्मा की प्राप्ति के साधन वेद में बतलाये गये हैं; उन सबका अनुष्ठान अभिमान, ममता, आसक्ति और फलेच्छा के त्याग पूर्वक करने वाले सभी साधक यज्ञ के लिये ही कर्म करने वाले हैं। अतएव उपर्युक्त यज्ञों को करने वाले पुरुषों की भाँति वे भी कर्मबन्धन में न पड़कर सनातन परब्रह्म को प्राप्त हो जाते हैं।

प्रश्न-यहाँ यदि ‘ब्रह्म’ शब्द का अर्थ ब्रह्मा या परमेश्वर मान लिया जाय और उसके अनुसार यज्ञों को देववाणी में विस्तृत न मानकर ब्रह्मा के मुख में या परमेश्वर के मुख में विस्तृत मान लिया जाय तो क्या आपत्ति है? क्योंकि ‘प्रजापति ब्रह्मा ने यज्ञ सहित प्रजा को उत्पन्न किया, यह बात तीसरे अध्याय के दसवें श्लोक में आयी है और ‘परमेश्वर के द्वारा ब्राह्मण, वेद और यज्ञों की रचना की गयी है’ यह बात सतरहवें अध्याय के तेईसवें श्लोक में कही गयी है?

उत्तर-प्रजापति ब्रह्मा की उत्पत्ति भी परमेश्वर से ही होती है; इस कारण ब्रह्मा से उत्पन्न होने वाले वेद, ब्राह्मण और यज्ञादि को ब्रह्मा से उत्पन्न बतलाया अथवा परमेश्वर से उत्पन्न बतलाना दोनों एक ही बात है। इसी तरह भिन्न-भिन्न यज्ञांे का विस्तारपूर्वक वर्णन वेदों में हैं और वेदों का प्राकट्य ब्रह्मा से हुआ है तथा ब्रह्मा की उत्पत्ति परमेश्वर से; इस कारण यज्ञों को परमेश्वर से या ब्रह्मा से उत्पन्न बतलाना अथवा वेदों से उत्पन्न बतलाना भी एक ही बात है किन्तु अन्यत्र यज्ञों को वेद से उत्पन्न बतलाया गया है और उनका विस्तार पूर्वक वर्णन भी वेदों में है; वही ठीक मालूम होता है।

प्रश्न-उन सबको तू मन, इन्द्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा सम्पन्न होने वाले ज्ञान-इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इस कथन से भगवान् ने कर्मों के सम्बन्ध में तीन बातें समझने के लिये कही हैं’-

  1. यहाँ जिन साधन रूप यज्ञों का वर्णन किया गया है एवं इनके सिवा और भी जितने कर्तव्य कर्मरूप यज्ञ शास्त्रों में बतलाये गये हैं, वे सब मन, इन्द्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा ही होते हैं। उनमें से किसी का सम्बन्ध केवल मन से है, किसी का मन और इन्द्रियों से एवं किसी-किसी का मन, इन्द्रिय और शरीर-इन सबसे है। ऐसा कोई भी यज्ञ नहीं है, जिसका इन तीनों में से किसी के साथ सम्बन्ध न हो। इसलिये साधक को चाहिये कि जिस साधन में शरीर, इन्द्रिय और प्राणों की क्रिया का संकलन-विकल्प आदि मन की क्रिया का त्याग किया जाता है, उस त्यागरूप साधन को भी कर्म ही समझे और उसे भी फल-कामना, आसक्ति तथा ममता से रहित होकर ही करे; नहीं तो वह भी बन्धन का हेतु बन सकता है।
  2. ‘यज्ञ’ नाम से कहे जाने वाले जितने भी शास्त्र विहित कर्तव्य कर्म और परमात्मा की प्राप्ति के भिन्न-भिन्न साधन हैं, वे प्रकृति के कार्यरूप मन, इन्द्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा ही होने वाले है; आत्मा का उनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं हैं। इसलिये किसी भी कर्म या साधन में ज्ञानयोगी को कर्तापन का अभिमान नहीं करना चाहिये।
  3. मन, इन्द्रिय और शरीर की चेष्टा रूप कर्मों के बिना परमात्मा की प्राप्ति या कर्म बन्धन से मुक्ति नहीं हो सकती; कर्म बन्धन से छूटने के जितने भी उपाय बतलाये गये हैं, वे सब मन, इन्द्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा ही सिद्ध होते हैं। अतः परमात्मा की प्राप्ति और कर्म बन्धन से मुक्त होने की इच्छा वाले मनुष्यों को ममता, अभिमान, फलेच्छा और आसक्ति के त्यागपूर्वक किसी-न-किसी साधन में अवश्य ही तत्पर हो जाना चाहिये।
प्रश्न-इस प्रकार तत्त्व से जानकर तू कर्म बन्धन से सर्वथा मुक्त हो जायगा, इस कथन का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-इससे भगवान् ने यह बात कही है कि अठारहवें श्लोक से यहाँ तक मैंने जो तुमको कर्मों का तत्त्व बतलाया है, उसके अनुसार समस्त यज्ञों को उपर्युक्त प्रकार से भलीभाँति तत्त्व से जानकर तुम कर्मबन्धन से मुक्त हो जाओगे। क्योंकि इस तत्त्व को समझकर कर्म करने वाले पुरुष के कर्म बन्धन-कारक नहीं होते, बल्कि पूर्व संचित कर्मों का भी नाश करके मुक्तिदायक हो जाते हैं।

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप।

सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।। 33।।

प्रश्न-यहाँ द्रव्यमय यज्ञ किस यज्ञ का वाचक है और ज्ञानयज्ञ किस यज्ञ का? तथा द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ को श्रेष्ठ बतलाने का क्या अभिप्राय है? 
उत्तर-जिस यज्ञ में द्रव्य की अर्थात् सांसारिक वस्तु की प्रधानता हो, उसे द्रव्यमय यज्ञ कहते हैं। अतः अग्नि में घृत, चीनी, दही, दूध, तिल, जौ, चावल, मेवा, चन्दन, कपूर, धूप और सुगन्ध युक्त औषधियाँ आदि हविका विधिपूर्वक हवन करना; दान देना; परोपकार के लिये कुँआ, बावली, तालाब, धर्मशाला आदि बनवाना, बलि-वैश्वदेव करना आदि जितने सांसारिक पदार्थों से सम्बन्ध रखने वाले शास्त्र विहित शुभकर्म हैं-वे द्रव्यमय के अन्तर्गत हैं। उपर्युक्त साधनों में इसका वर्णन देवयज्ञ, विषय-हवनरूप यज्ञ और द्रव्ययज्ञ के नाम से हुआ है। इनसे भिन्न जो विवेक, विचार और आध्यात्मिक ज्ञान से सम्बन्ध रखने वाले साधन हैं, वे सब ज्ञान यज्ञ के अन्तर्गत हैं। यहाँ द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञानयज्ञ को श्रेष्ठ बतलाकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यदि कोई साधक अपने अधिकार के अनुसार शास्त्र विहित अग्निहोत्र, ब्राह्मण-भोजन, दान आदि शुभ कर्मों का अनुष्ठान न करके केवल आत्मसंयम, शास्त्राध्ययन, तत्त्व विचार और योग साधन आदि विवेक-विज्ञान सम्बन्धी शुभ कर्मों में से किसी एक का भी अनुष्ठान करता है तो यह नहीं समझना चाहिये कि वह शुभ कर्मों का त्यागी है, बल्कि यही समझना चाहिये कि वह उनकी अपेक्षा भी श्रेष्ठ कार्य कर रहा है; क्योंकि द्रव्ययज्ञ भी ममता, आसक्ति और फलेच्छा का त्याग कर ज्ञानपूर्वक किये जाने पर ही मुक्ति का हेतु होता है, नहीं तो उल्टा बन्धन का हेतु बन जाता है और उपर्युक्त साधनों में लगे हुए मनुष्य तो स्वरूप से भी विषयों का त्याग करते हैं। उनके कार्यों में हिंसादि दोष स्वरूप से भी नहीं है-इससे भी वे उत्तम हैं। यथार्थ ज्ञान (तत्त्वज्ञान) की प्राप्ति में भाव की प्रधानता है, सांसारिक वस्तुओं के विस्तार की नहीं। इसलिये यहाँ द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ को श्रेष्ठ बतलाया है।
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