हिन्दुस्तान को अपना पुण्यभूमि मानने वाला हिन्दुस्तानी-अशोक “प्रवृद्ध”

हिन्दुस्तान को अपना पुण्यभूमि मानने वाला हिन्दुस्तानी-अशोक “प्रवृद्ध”

भारत के कुछ अति राष्ट्रवादियों का विचार है कि भारत में जन्मजात जाति-पाँति का विचार मिटा देना चाहिए। बहुसंख्यक हिन्दूओं में स्वार्थरत रहने की प्रवृति के स्थान पर शिक्षा के माध्यम से धर्म और न्याय की प्रवृति उत्पन्न कर दी जाए। शिक्षा व संविधान के द्वारा सब के सब धनी, निर्धन, राजा, रईस और मजदूर, ब्राह्मण और चाण्डाल को एकसमान मानने की प्रवृति उत्पन्न कर दिया जाए और इस देश को हिन्दुओं की बपौती और हिन्दुओं को यहाँ के राज्य का उत्तराधिकारी स्वीकार कर कह देना चाहिए कि यहाँ धर्म का राज्य स्थापित होगा। जब यह विचार पर्याप्त विस्तार पा जायेगा तो फिर यहाँ स्वतः ही एक स्वयंसेवक संस्था अस्तित्व में आ जायेगा, जो इस पूर्ण देश के संगठन को चालू रख देश की रक्षा हेतु क्षत्रिय भाग अर्थात सेना का निर्माण कर सके। तब निश्चय ही हिन्दू राष्ट्र का निर्माण हो जायेगा और हिन्दू राज्य भी हो जायेगा। प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या ऐसा संभव है? कुछ लोगों का विचार है कि हिन्दू संगठन तो दूर रहा, हिन्दू जाति टूक-टूक हो जाएगी और हिन्दू -हिन्दू परस्पर ही लड़ पड़ेंगे। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं कि भारत के स्वाधीनता संग्राम के समय इस देश का बहुसंख्यक हिन्दू ही स्वराज्य प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील थे और भारत विभाजन के बाद भी देश के बहुसंख्यक ही राष्ट्रोत्थान के लिए प्रयत्न कर रहे हैं, परन्तु उनमें हीन भावना उत्पन्न होने के कारण सामर्थ्य होने के बावजूद वे अपने को दुर्बल समझने लगे हैं कि वे अपनी सफलता के उतुंग शिखर को नहीं पा सकेंगे। इस हीन भावना के कई कारण हैं। एक तो यह कि इस देश में हिन्दू, जाति-पाँति, ऊँच-नीच, प्रान्त-प्रान्त की भावना और छुआछूत के भेद-भाव में फंसा हुआ प्राणी है। यह तुरन्त दूर होनी चाहिए। दूसरे, हिन्दू किसको कहते हैं? इस बात में सब सहमत नहीं हैं। कोई चोटी रखना हिन्दू होने का लक्षण समझता है, तो कोई तिलक लगाना हिन्दू होने का लक्षण मानता है। किसी का हिन्दूपन धोती पहनने में दिखाई देता है, इत्यादि। परन्तु ये सब लक्षण हिन्दू होने के नहीं हैं। हिन्दू तो वह जनसमुदाय है, जो इस देश को अपनी जन्म-भूमि तथा पुण्य-भूमि मानता है। शेष सब लक्षण सामाजिक, स्थानीय और गौण हैं। हिन्दुस्तान को अपनी पुण्यभूमि मानने में यहाँ का इतिहास, यहाँ के रीति-रिवाज, यहाँ की परम्पराएँ, यहाँ का साहित्य और धर्म हमारे उत्कट प्रेम का विषय हो जाते हैं। तब यदि कोई हमारे इतिहास को गलत माने अथवा हमारे पूर्वज को हीन, दीन, अशिक्षित कहे तो हम इसको गाली समझें, इत्यादि। तीसरे, यह कि धर्म, विशेषरूप में हिन्दू धर्म क्या है, यह जान लेने से ही हिन्दू संगठन स्वयमेव बन जायेगा। हिन्दू मूर्ति -पूजक है, हिन्दू, ब्राह्मण. क्षत्रिय , वैश्य तथा शूद्र हैं, हिन्दू शिवजी का उपासक है, इत्यादि भावनाएँ मिथ्या हैं । इन सब बातों का सम्प्रदाय से सम्बन्ध है। हिन्दू धर्म तो इन सबसे भिन्न है। ये बातें रह सकती हैं, परन्तु वास्तविक बात है कि यहाँ के रहने वालों के आचार-विचार ही, जिनका स्रोत हमारे धर्मशास्त्र वेद हैं, हमारे धर्म के सूचक हैं।
इस समय इस निमित्त करणीय कार्य है- छुआ-छूत एवं जन्मजात वर्णाश्रम धर्म समाप्त करना । पिछड़ी जाति की कल्पना को निर्मूल करना। सब बराबर हैं, सबको उन्नति करने के अवसर समान हों और जो इस देश को जन्मभूमि और कर्मभूमि मानते हैं, उनका संगठन हो। जो ऐसा नहीं मानते, जो इसके लिए अपना सब कुछ न्योछावर करना नहीं चाहते, वे हिन्दू नहीं हैं। हिन्दुस्तान उनका देश नहीं है और वे यहाँ के राष्ट्र के अंग नहीं हैं। भारतीय परम्परानुसार धर्म ही कानून का मुख्य आधार है। कोई भी कानून धर्म के व्यापक नियमों के विपरीत नहीं हो सकता। इस पर भी धर्म अन्तःप्रेरणा से पालन किया जा सकता है। कानून का पालन बाहरी दबाव से होता है। उदहारण के रूप में, चोरी करना अधर्म है। एक व्यक्ति जौहरी के दुकान पर जाता है और वहाँ पड़े हीरा-पन्ना, सोना-चांदी देख, उनके उठाने की इच्छा करने लगता है। इससे अधर्म तो हो गया, किन्तु यह चोरी नहीं हुई। वह देखता है कि चौकीदार बन्दूक लिए दरवाजे पर खड़ा है और वह पकड़ लेगा तो कई वर्षों की सजा हो जायेगी। इसके डर से भयभीत वह कोई वस्तु नहीं चुराता। चोरी नहीं की गई, परन्तु अधर्म तो हो गया है। इसी प्रकार यदि मुसलमान आज देश के दुश्मन आतंकवादियों के साथ मिलकर देश के विकास में बाधक और राष्ट्र के पुनः परतन्त्रता में सहायक बना रहता है, परन्तु छद्म रहन-सहन से बहुसंख्यक हिन्दुओं के साथ रहता है तो अधर्म तो गया यद्यपि दिखावे में देशभक्ति बनी हुई है। यही कारण है कि राष्ट्रोत्थान व देश के सर्वांगीण विकास हेतु यहाँ धर्म का राज्य आवश्यक हो गया है। जिससे जो भी करना अथवा कहना हो, वह स्पष्ट रूप में अपनी अन्तःप्रेरणा से हो।
अन्तःप्रेरणा संस्कारों से आती है। हिन्दू के संस्कार और मुसलमान के संस्कार समान होने चाहिए, तब दोनों के कर्तव्य समान प्रेरणा से सम्पन्न होंगे। प्रश्न उत्पन्न होता है कि यह कैसे होगा? इसके लिए मुसलमान को कम से कम बाहरी व्यवहार में हिन्दू के समान हो जाना चाहिए। संस्कार ऐसे होने चाहिए जिससे एक-एक मुसलमान भी अपने को हिन्दुस्तान का रहने वाला समझने लगे। हिन्दू ऐसा करता है, इसीलिए तो जब-जब भी देश पर भीड़ पड़ती है, वह इसके लिए लड़ता है, मरता है। संस्कार हों हिन्दुस्तानी जबान को सीखना, हिन्दुस्तानी पोशाक पहनना, हिन्दुस्तानी जबान में अपने और अपने बच्चों के नाम रखना और यहाँ रहने वाले पूर्वजों के लिए इज्जत और तारीफ़ करना। प्रश्न यह भी उत्पन्न होता है कि मुसलमानों को हिन्दुओं के समान क्यों हो जाना चाहिए? हिन्दू मुसलमानों के समान क्यों नहीं हो जायें?? ऐसा इसलिए कि दोष मुसलमानों में है। उनकी निष्ठा देश के बाहर की भाषा, देश के बाहर की भूषा और देश के बाहर की भावना में है। मुसलमान अपना नाम रखता है- अब्दुल माजिद खान , सारिक खान इत्यादि। यह हिन्दुस्तानी भाषा नहीं है। हालाँकि आज सम्पूर्ण विश्व का पोशाक एक समान पैंट-शर्ट ,टाई और जूता हो गया है, तथापि आज भी एक मुसलमान तुर्की टोपी पहनता है अथवा अफगानी सलवार पहिनता है, वह हिन्दुस्तानी पोशाक नहीं पहनता। खातूनें आधुनिकता के नाम पर सब कुछ करेंगी, लेकिन पढने के लिए विद्यालय, महाविद्यालय जायेंगी, तो विद्यालय के सामान्य वस्त्र के स्थान पर हिजाब में आयेंगी।
यदि तो इस देश में विदेशी आचार-व्यवहार, भाषा-भेष और भावना की आवश्यकता है तो निःसंदेह हिन्दू को इस देश की बातों को छोड़ मुसलमान अथवा किसी अन्य देश की भाषा इत्यादि ग्रहण कर लेनी चाहिए। इससे मुसलमान मुसलमान रहता हुआ हिन्दुस्तान में विकास का सहभागी बन रहने का भागीदार हो सकता है। इसके लिए किसी मुसलमान को वैदिक धर्मी होना जरुरी नहीं है। हमारा तो यह कहना है कि मोहसिन खान, अब्दुल माजिद खान इत्यादि में इस्लाम है क्या? तुर्की टोपी में अथवा अफगानी सलवार में इस्लाम के उसूल घुसे हैं क्या? इसी प्रकार इस्लाम एक सिद्धांत है अथवा अरब या फिर तुर्की का सुल्तान इस्लाम है। इस्लाम के मजहबी उसूलों को बदलने की कोई आवश्यकता नहीं। दरअसल आचार- व्यवहार का मजहब से उतना घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं है। आचार-व्यवहार का मजहब से सम्बन्ध हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। कई व्यवहार ऐसे भी हैं, जो रिवाज और परम्परा से बनते हैं। अभिप्राय यह कि कुछ व्यवहार ऐसे हैं जो मजहब के आदेश से बाहर हैं। उदाहरणार्थ, भाषा का प्रश्न है। मुसलमान अंग्रेजी तो पढ़ लेते हैं परन्तु हिन्दी अथवा संस्कृत नहीं पढ़ते। जब अंग्रेजी पढने में आपत्ति नहीं तो हिन्दी पढने में भी नहीं होनी चाहिए। इसी प्रकार इस्लाम का सम्बन्ध हिन्दुस्तानी नामों से क्यों नहीं? एक रामदयाल मुसलमान क्यों नहीं हो सकता? और रुस्तम ही क्यों हो सकता है ? मुसलमान अपने को बाहरी लक्षणों में हिन्दू के समान कर हिन्दुस्तान में विकास का सहभागी बन हिन्दुओं से सम्मिलित होकर रह सकता है, उसे मजहब से सम्बन्ध रखने वाले व्यवहार को छोड़ने की कतई आवश्यकता नहीं। यह सत्य है कि हमारे देश में नैतिक पतन हो चूका है। उस नैतिक पतन से देशवासियों को उभारने के लिए लोगों में राष्ट्रभक्ति अर्थात देश से प्रेम की और नैतिक आचरण की सुदृढ़ता के लिए एक आचार संहिता की आवश्यकता है। अनैतिकता को दूर करने के लिए एक आचार संहिता का निर्माण व प्रचार करने की आवश्यकता होगी। यदि मुसलमान उस आचार-संहिता में भागीदार बनना चाहेंगे तो इस देश में रह सकेंगे और यदि नहीं, तो उनको देश में रहने का अधिकार कैसे हो सकता है ? देश में रहने वालों के लिए देश से प्रेम, इस देश की वस्तुओं से प्रेम, इस देश की समृद्धता से प्रेम, इस देश के रहने वालों से प्रेम होना आवश्यक है। इस देश के रहने वालों की भावनाओं का आदर और देश के रहने वालों की विचार स्वतंत्रता का आदर करने के गुण देशवासियों में अनिवार्य रूप से रहने ही चाहिए। लेकिन मुसलमान पाकिस्तान के शासक को, तुर्की के सुल्तान को, अफगान के तालिबान को अपना रहनुमा मानते हैं और यदि आज पाकिस्तान अथवा कोई इस्लामी देश हिन्दुस्तान पर आक्रमण करे तो इसमें से अधिकांश उसकी सहायता करने को तैयार हो जायेंगे। ऐसे में उन पर बिश्वास कर उन्हें हिन्दुस्तानी कैसे माना जा सकता है?
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