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संवेदनाओं की समानता

संवेदनाओं की समानता

-- वेद प्रकाश तिवारी
शादियों में मैं अक्सर देखता हूं कि दुल्हन जब वर को माला पहनाने के लिए अपने दोनों हाथ ऊपर उठाती है तो उस समय कुछ वर अपनी गर्दन को झुकाने से इंकार कर देते है और वर के मित्र मजा लेते हुए यह कहते सुने जाते हैं कि सर नीचे मत करना । हलांकि यह सिलसिला थोड़ी देर के लिए एक मजाक तक सीमित होता है, फिर दूल्हा और दुल्हन एक दूसरे के गले में माला डाल देते हैं । यह दृश्य मैंने कई बार देखा है ।
मेरे मन में यह विचार आया कि क्यों न इस विषय पर कुछ लिखा जाए । आज मैं इस विषय वस्तु कर थोड़ा प्रकाश डालने की कोशिश कर रहा हूं ।
गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं --
चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई॥
सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई॥
सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला॥
गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली॥
धनुष भंग होने के बाद सीता जी वर माला लेकर राम जी के समक्ष पहुंचती हैं तब सीता जी की सखियां उनसे कहती हैं जयमाला पहनाओ । यह सुनकर सीताजी ने दोनों हाथों से माला उठाई पर प्रेम की विवशता होने से पहनाई नहीं जाती । उस समय उनके दोनों हाथ ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो डंडियों सहित दो कमल चंद्रमा को डरते हुए जयमाला दे रहे हो। इस छवि को देखकर सखियां गाने लगी तब श्रीराम ने अपने सर को झुकाया और सीताजी ने उनके गले में जयमाला पहना दी। प्रभु लंबाई में उनसे ऊंचे निकले। माता को उचकना न पड़े इसलिए प्रभु ने स्वयं ही सर झुका लिया। दोनों बराबर हो गए । वहीं से तो सीखते हैं हम सब कुछ । स्त्री- पुरुष सम्बन्धों में यदि प्रेम है, समर्पण है, सम्मान है, तो बड़े से बड़े अंतर को भी थोड़ा सा उचक कर या सर नवा कर पाट दिया जा सकता है। स्त्री- पुरुष के बीच बराबरी न सौंदर्य के आधार पर हो सकती है, न शारीरिक शक्ति के आधार पर । बस संवेदनाओं में समानता हो तो दोनों बराबर हो जाते हैं। वियोग के दिनों में वन- वन भटक कर भी राम हर क्षण सीता के रहे और स्वर्ण लंका की वाटिका में रह कर भी सीता हर क्षण बस राम की रहीं । दोनों का प्रेम अटूट था। दोनों की संवेदनाएं समान थी । इसलिए दोनों सदैव बराबर रहे ।तभी तो राम के बिना सीता और सीता के बिना राम दोनों अधूरे हैं ।
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