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दिनकर दर्शन

दिनकर दर्शन

पंडित ज्योतिन्द्र मिश्र कि कलम से
आज 23 सितंबर है। राष्ट्र कवि स्व रामधारी सिंह 'दिनकर' जी की जयंती है। बाल्य काल से ही उनके नाम से हम परिचित रहे हैं। मेरे साहित्यिक गुरु आचार्य पशुपति नाथ मिश्र ' प्रफुल्ल' उनके समकालीन कवि थे। जब भी किसी कविता की बात होती तो बड़े बाबूजी दिनकरजी को अनिवार्य रूप से स्मरण करते थे। तब दरभंगा जिला हिंदी साहित्य सम्मेलनों में एक ही मंच पर दिनकर जी, आरसी प्रसाद सिंह, पोद्दार रामावतार अरुण ,कलक्टर सिंह केसरी, गोपाल सिंह नेपाली के साथ आचार्य प्रफुल्ल शास्त्री भी मंच साझा किया करते थे।

बड़े बाबूजी दिनकर जी की काव्य शैली में भी रचनाएँ किया करते थे। अर्थात उस काल में सर्वमान्य कवि के रूप में उन्हें जनता स्वीकार करती थी। आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री जी उसी कालखंड के महार्घ्य महाकवि थे किंतु संस्कृत निष्ठ लेखनी और भारी भरकम शब्दों के प्रयोग के कारण उन्हें श्रद्धा के योग्य तो समझती थी लेकिन सरल और ग्राह्य शब्दों के सरल प्रवाह के कारण दिनकर जी जनकवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए।

बचपन में ही काव्य कीट का संक्रमण मुझे भी लग गया था। वजह घर में एक महागौनी कवि की उपस्थिति थी।

उस वक्त रश्मि रथी की पंक्तियां हर उस बच्चे की जुबान पर रहती थी जो थोड़ा सा भी पढानुक थे।

मेरी भी लालसा रहती थी कि कभी दिनकर दर्शन होगा।

ऐसा अक्सर होता है कि जब किसी को भी आप पूरी शिद्दत के साथ चाहेंगे तो कभी न कभी आपकी सदिच्छा पूरी हो जाएगी। बहुत बार ऐसे संयोग मेरे साथ हुए हैं।

1970 में हम कालेज से मुक्त होकर घर आगये थे।

नवम्बर में यह मनोकामना पूरी हुई। बताता चलूँ कि 1964 में ही तुलसी जयंती कविता पुरस्कार में प्रथम स्थान मिलने पर गीतकार गोपाल सिंह नेपाली जी के कर कमलों से पुरस्कार पाने पर चरण स्पर्श करते ही मैं भी उनकी जमात में शामिल हो गया था। यानी मैं जमुई हायर सेकेंडरी स्कूल का प्रतिनिधि कवि हो चुका था।

काव्य का कीट जब संक्रमित करता है तो मियादी बुखार की तरह मियाद पूरी होने पर उतरता नहीं है। यह संक्रमण मन मस्तिष्क को इस तरह जकड़ लेता है कि कोई दवा काम नहीं करती । यह बुखार केवल और केवल बीबी की झाड़ू से ही उतरता है। यही कारण है कि कवि गण हर मंच पर बीबी से सम्बंधित कविताएँ जरूर सुनाते हैं।

ओह, कहने चले क्या और कह रहा हूँ क्या ।

बहर हाल दिनकर दर्शन की बात चल रही थी । सो एक बिहारी युवा कवि का रूप धरे हम भी नई दिल्ली में आयोजित एफ्रो एशियन राइटर्स कान्फ्रेन्स में शिरकत करने पहुंचे । बाबा नागार्जुन की नकल करते हुए झोला लटकाया और विज्ञान भवन में घुस गए।

उस दिन उदघाटन सत्र का शुभारंभ तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा जी को करना था। हम सब सज्जाद जहीर साहब के पास कार्ड पर दस्त खत कराने के लिए पँक्तिवद्ध थे । उस वक्त मैं 24 वर्ष का अविवाहित युवा था। किसी को धकिया कर आगे निकलने में लिहाज करने की जरूरत नहीं समझता था। दस्तखत कराया और झटपट मेन गेट की तरफ लपक कर गए।

तभी देखा मेन गेट से थोड़ा हटकर दिनकर जी अकेले खड़े हैं। आर्य पुरुष की तरह लम्बी कद काठी , सफेद गांधी टोपी , चुस्त पायजामा, ठेहुने तक लटका कुर्त्ता । धर्मयुग , साप्ताहिक हिंदुस्तान आदि पत्रिकाओं में इनकी तस्वीर जग जाहिर थी। तभी एक महिला ने आकर उनके चरण छुए । स्वर्णाभूषण से लदी , कांजीवर्म की नीली साड़ी पहने वह अप्रतिम सुंदरी आकर्षित कर रही थी। अब हम दिनकरजी को न देखकर उसी को देखे जा रहे थे। मैं धीरे धीरे दिनकर जी के विल्कुल करीब पहुँच चुका था। मेरा बिहारी पन जग गया और मैं भी उनके चरणों में झुक कर स्पर्श किया । जब उनकी बातें उस महिला से समाप्त हुई तो पूछा - कहाँ से हो?

मैंने कहा - बिहार से ।साथ में अपना नाम भी बताया।

कुछ और बात बढ़ाने का मन तो था लेकिन दिनकर जी की नजरें किसी को ढूढ़ रही थी ।यह और कोई नहीं हरिवंश राय बच्चन थे जो छड़ी पकड़े विज्ञान भवन की सीढ़ियां चढ़ रहे थे।

बच्चन जी आये और दिनकर जी से सलाम वन्दगी की ।

मैं एक पल भी गंवाना नहीं चाहता था ।मैंने बच्चन जी के चरणों का भी स्पर्श किया ।

बच्चन जी ने भी वही सवाल किया - कहाँ से हो।

बिहार से , मैंने भी वही उत्तर दिया ।

ठीक है चलिए अंदर ।

हम पीछे पीछे हो लिए । यह भी ठान लिया कि ये जहां बैठेंगे उन्हीं के आसपास रहूँगा।

तभी इंदिरा जी हाल में घुस गई। सिक्युरिटी वालों के कारण हमें अगली पँक्ति के पीछे तीसरी कतार मिली।

उस दिन तो यही सब हुआ। मेरे ऑपोजिट साइड में डॉ प्रभाकर माचवे बैठे हुए थे। फोटोग्राफर एक एक कतार का फ़ोटो ले रहा था। हमारा भी लिया।लेकिन हम इस बात से बे परवाह थे कि फ़ोटो हमें हासिल होगा।

दूसरे दिन के सत्र में वही फोटोग्राफर सभी फ़ोटो को दीवाल पर चिपकाए हुए था। सब अपना अपना चेहरा ढूंढ रहे थे। मैं भी लग गया। मेरा चेहरा भी मिला। जो अग्रिम पंक्ति से शॉट लिया गया। मेरे वाले फ़ोटो में दिनकर और बच्चन एक साथ बतियाते दिखे। मैंने झट फ़ोटो की डिमांड की । तब 20 रुपये देने पड़े। इस शाहखर्ची के लिए मेरे पास पर्याप्त पैसे तो नहीं थे । लेकिन यह अनमोल फ़ोटो के प्रति वैराग्य वरण नहीं कर सकता था ।

चलो देखा जाएगा। यह सोचकर मैने फ़ोटो ले लिया। लौटती में हम सड़क किनारे के उस होटल में नहीं गए।

चार केले खाकर रात काट ली गयी।

तब से यह फ़ोटो मेरी अमूल्य धरोहर के रुप में रखी है।

यह हमें उस युग का बोध कराता है कि हमने हिंदी साहित्य के महान पुरोधाओं के साथ संगति की । उनकी गरिमामय उपस्थिति के बीच हम भी थे । उन्हें देखा। बातें की। क्षण भर के लिये ही तो देवता दर्शन देकर धन्य कर जाते हैं।

आज फिर उसी 24 वर्षीय भावना के साथ जीवन के 74 वें वर्ष में पुनः प्रणाम कर रहा हूँ।

इति शुभम।
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