अश्विनी नक्षत्र को अथर्ववेद अश्वयुज अर्थात अश्वों की जोड़ी कहता है

अश्विनी नक्षत्र को अथर्ववेद अश्वयुज अर्थात अश्वों की जोड़ी कहता है


संकलन अश्विनीकुमार तिवारी

आज से लगभग ८५०० वर्ष पहले जब सूर्य अश्विनी नक्षत्र में उत्तरायण होते थे, तब का बहुत ही अलंकारिक वर्णन ऋग्वेद में मिलता है। अश्विनी नक्षत्र को अथर्ववेद अश्वयुज अर्थात अश्वों की जोड़ी कहता है। इसका कारण नक्षत्र के दो तारे हैं। अश्विनकुमार यही दो तारे हैं।
सूर्य के उत्तरायण होते ही यज्ञों के वार्षिक सत्रों का नया चक्र प्रारम्भ होता था। दिन बड़ा होने लगता, सूर्य की कांति बढ़ने लगती। अलंकारिक वर्णन में उसे ऐसे व्यक्त किया गया जैसे कि अश्विनकुमारों के रथ में सूर्य की दुहिता अर्थात पुत्री उन्हें वरण करने के पश्चात सवार शोभायमान हो रही हो। यहाँ दुहिता शब्द प्रयोग बहुत अर्थगहन है। दूहने से सम्बन्धित शब्द सूर्य की कांतिमय रश्मियों को दूहती उनकी पुत्री सूर्या को अभिव्यक्त करता है। कालांतर में अयनगति सूर्या के सोम अर्थात चन्द्र संग विवाह से अभिव्यक्त होने लगी। वैदिक उषा दक्षिणायन के समय की लम्बी ठिठुरती रातों से मुक्ति का प्रतीक भी है जब कि सूर्य दुहिता चन्द्रमा की २७ पत्नियों अर्थात नक्षत्रों में एक से अभिव्यक्त होती है जिसमें चन्द्रगति से जुड़े नाक्षत्रिक महीनों की ओर संकेत है। आज भी विवाह के वैदिक मंत्र सूर्या सोम के विवाह वाले ही हैं।
पृथ्वी के घूर्णन अक्ष की लगभग २५७००वर्ष की आवृति वाली चक्रीय गति को ले गणना करें तो शीत अयनांत के अश्विनी नक्षत्र में होने का काल आज से लगभग ८००० से ९००० वर्षों पहले का है।]
शीत अयनांत है। यमलोक की मृत्युशीत में निवास करते पितरों ने निज वार्षिक विश्राम हेतु धरा पर अपनी संतति का दायित्त्व देवों को सौंप दिया है। अश्विन नक्षत्र पर आ चुके सूर्य उत्तरायण होंगे। दिनमान बढेंगे। ऊष्मा का संचरण होगा। नवजीवन सृजन को सूर्य की पुत्री सूर्या ने अश्विनकुमारों का वरण किया है। उन अद्भुत मायावियों के संग उसे कीर्ति मिलेगी। सूर्या के यौवन को समृद्धि उपहार मिलेंगे। आनन्द खग उड़ान भरेंगे।
ऋषि भरद्वाज आह्लादित हैं। बृहस्पति के वंशज का त्रिष्टुप छन्दी आह्लाद छलक पड़ा है। (६.६३.५-६)
सरस्वती के तट पर मैत्रावरुणि वसिष्ठ ने दुल्हन सूर्या के संग आरूढ़ अश्विनकुमारों के रथ के परिपथ का प्रेक्षण किया है। उसका परिपथ अंतरिक्ष के अंतबिन्दुओं तक प्रसरित है। सूर्या ने उस समय अश्विनियों के प्रकाश का वरण किया जब रजनी तनु हो धूसर प्रात: का रंग ले रही थी। (७.६९.३-४)
✍🏻गिरिजेश राव

हमारी अनेक पुराकथायें कितनी प्रयोजनमूलक हैं हम सहसा समझ नहीं पाते। उन्हें बस मिथक का दर्जा देकर तर्क से परे ढ़केल देते हैं। मैंने सदैव पाया है कि हमारी कितनी ही पुराण कथाओं में ज्ञान और शिक्षण के मर्म छुपे हैं किन्तु हम उनका अपनी सीमित दृष्टि से उद्घाटन नही कर पाते। समझ नहीं पाते। कितने तो नये ज्ञानी इनका उपहास उड़ाते हैं। इन्हे बेसिर पैर का मानते हैं।

अभी उसी दिन अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी की खगोलीय रुचि को देखते हुए मैंने उनसे धुर दक्षिण में चमक रहे एक सायंकालीन तारे के बारे में जिज्ञासा की तो उन्होने बताया कि वह अगस्ति (कैनोपस) तारा है जो आसमान में सबसे चमकने वाले तारों में लुब्धक के बाद का दूसरे नम्बर का तारा है। इसका हिन्दी नामकरण हमारे ऋषि अगस्त्य के नाम पर हुआ है।

आईये लगे हाथ ऋषि अगस्त्य से जुड़ी एक मशहूर कथा आपको अति संक्षेप में सुना दें ताकि आप इस प्रसंग से जुड़ सकें। एक बार हिमालय और विंध्याचल पर्वतों में होड़ लग गई कि कौन कितना ऊंचा उठ सकता है। दोनों बढ़ने लगे। सूर्य का रास्ता रुक गया। कुहराम मच गया। जाहिर था इन्द्र की सभा में इस नई मुसीबत पर सभा बुलाई गई, विचार विमर्श में तय पाया गया कि विंध्याचल ऋषि अगस्त्य का शिष्य है इसलिये उनकी बात शिरोधार्य करेगा।।

लिहाजा अगस्त्य को भेजा गया। उन्हें देखते ही आज्ञाकारी शिष्य दंडवत मुद्रा में साष्टांग लेट गया। बात बन गई। अगस्त्य मुनि ने आदेश दिया कि वत्स ऐसे ही रहना जब तक कि मैं अपनी दक्षिण यात्रा से लौट न आउं। और आज भी विंध्याचल अपने आराध्य की प्रतीक्षा कर रहा है।

अब दक्षिणी आकाश के तारे कैनोपस पर वापस आया जाय। इसका नाम हमारे पूर्वजों ने उचित ही, अगस्त्य ऋषि के नाम पर रखा है जो उनके दक्षिणायन होने की कथा से ही प्रेरित है। मगर क्या अगस्त्य कभी उत्तर की ओर नहीं लौटेंगे? इस तारे पर हुई नई नवेली जिज्ञासा मुझे विकीपीडिया तक ले गई। वीकिपीडिया के अनुसार -

 "वर्तमान युग में अगस्ति तारा धीरे-धीरे उत्तर की तरफ़ जा रहा है। अनुमान लगाया जाता है के यह विन्ध्याचल पर्वतों में लगभग सन् ५,२०० ईसापूर्व में और दिल्ली या कुरुक्षेत्र के आसपास के इलाकों में सन् ३,१०० ई॰पू॰ में ही दिखना शुरू हुआ। इस से कुछ लोग अनुमान लगते हैं के ऋषि अगस्त्य विन्ध्य पर्वतों को पार करके दक्षिण भारत में सन् ४,००० ई॰पू॰ के आसपास दाख़िल हुए होंगे"

लीजिये ऋषिवर उत्तरायण हो लिये हैं। घबराईये नहीं। मुझे तो बस यह कहना है कि हमारे गगनविहारी पूर्वज अपने नियमित प्रेक्षणों से इस तारे का शनैः शनैः दक्षिणी क्षितिज से ऊपर उत्तर की ओर उठते रहने को देख समझ चुके थे। इन सभी प्रेक्षणों को उन्होंने एक रोचक कथानक में गूंथ दिया। और अगस्त्य विंध्याचल की कथा अमर हो गयी।

हो सकता है जैसे मैंने अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी से आज यह सवाल किया कि धुर दक्षिण का वह तारा कौन सा है, ठीक ऐसे ही हमारे किसी पुरातन जिज्ञासु ने यही सवाल प्राचीन खगोलविद - पुराणकार से पूछ लिया हो और तब अगस्त्य विंध्याचल की उपर्युक्त पुराण कथा जन्मी हो ताकि एक आकाशीय ज्ञान भोले भाले लोगों को भी सहजता से दिया जा सके।

इन दिनों तो चन्द्रमा की रोशनी में अगस्ति तारा छुप सा गया है किन्तु अगले अंधियारे पक्ष में दक्षिणी क्षितिज के इस चमकीले तारे को देखना आप मत भूलिएगा।
✍🏻डॉ अरविंद मिश्रा

॥जानिए उत्तराखण्ड के ‘घुघुतिया’ त्यौहार के बारे में॥
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॥पक्षियों के प्रति सौहार्द भाव का लोकपर्व ॥
 ‘काले कवा काले, घुघुती मावा खा ले’ 
कुमाउं उत्तराखण्ड में मकर संक्रान्ति का पर्व ‘उत्तरायणी या ‘घुघुती त्यौहार के रूप में मनाया जाता है और काले कौए को इस दिन घुघुते, खजूर के पकवान खाने के लिए विशेष अतिथि के रूप में बुलाया जाता है -

“काले कव्वा काले ! घुघुते माला खाले!”
(हे काले कव्वे ! घुघुतों की माला खाले)
“ले कव्वा बड़े ! मकैं दियै सुनूँ घड़े !”
(हे कव्वे ! बड़ा खाले उसके और 
 बदले मुझे सोने का घड़ा दे दे)'

कभी कोई जमाना था जब दुहरी–तिहरी घुघुतों की माला पहने हर पहाड़ी बालक हो या वृद्ध या महिला कौवों को बुलाकर ‘उत्तरायणी  त्योहार का स्वागत किया करते थे पर अब इसकी लोक परंपरा धीरे धीरे लुप्त होती जा रही है और पहाड़ के कौए भी उत्तरायणी के दिन निराश होकर चले जाते हैं कि जिन मकानों से उनको इस दिन घुघुते–बड़े खाने को मिलते थे वहां ताले लटके हैं। वहां के स्वामी अपने रोजगार के लिए घर छोड़ कर पलायन करके चले गए हैं तो अब कहां से मिलेगा उन्हें खाने को घुघुते और बड़े जिससे कि वे उन गृहस्वामियों को उन्हें सोने के घड़े का उपहार दे सकें। यह चिंता की बात है कि हम आज न केवल पहाड़ से बल्कि उस अपनी हिमालयीय विराट् लोक संस्कृति से भी दूर होते जा रहे हैं जिसमें एक कौए जैसे पक्षी के लिए भी अत्यंत आत्मीयता के बोल बोले जाते हैं। घुघुती हो या कौआ प्रकृति की गोद में विचरण करने वाले इन पक्षियों के रचना संसार से ही उत्तरायणी जैसी पहाड़ की लोक संस्कृति को नव जीवन मिलता है।

  कुमाऊं की वादियों में प्रचलित एक स्थानीय जनश्रुति  के अनुसार कुमाऊं के चंदवंशीय राजा कल्याण चंद को बागेश्वर में भगवान बागनाथ की तपस्या के उपरांत राज्य का इकलौता उत्तराधिकारी पुत्र निर्भय चंद प्राप्त हुआ था, जिसे रानी प्यार से  ‘घुघुती’  कहती थी। ‘घुघुती’  पर्वतीय इलाके के एक पक्षी को कहा जाता है। राजा का यह पुत्र भी एक पक्षी की तरह उसकी आँखों का तारा था उस बच्चे के साथ कौवों का विशेष लगाव रहता था। बच्चे को जब खाना दिया जाता था तो वह कौवे उसके आस पास रहते थे और उसको दिए जाने वाले भोजन से वे अपनी भूख मिटाया करते थे। एक बार राजा के मंत्री ने षड़यंत्र रच कर राज्य प्राप्त करने की नीयत से ‘घुघुती’ का अपहरण कर लिया। वह उस मासूम बच्चे को जंगलो में फैंक आया। पर मित्र कौवे वहां भी उस बच्चे की मदद करते रहे। इधर राजमहल से बच्चे का अपहरण होने से राजा बहुत परेशान हुआ।  कोई गुप्तचर यह पता नही लगा सका आखिर ‘घुघुती’  कहां चला गया ? तभी रानी की निगाह एक कौवे पर पड़ी ।  वह बार बार कहीं उड़ता था और वापस राजमहल में आकर कांव कांव करता था.। उसी समय कौवा ‘घुघुती’ के गले में पड़ी  मोतियों की माला को राजमहल में ले आया। इससे रानी को पुत्र की कुशलता का संकेत मिला और रानी ने यह बात राजा को बताई। उस कौवे का पीछा करने पर राजा का पुत्र  जंगल में मिल गया जहां पर उसके चारों ओर कौवे उस बच्चे की रक्षा कर रहे थे।  

राजा को जब यह बात पता चली कि कौवों ने उसके पुत्र की जान बचाई है तो उसने प्रति वर्ष ‘उत्तरायणी’ के दिन ‘घुघुतिया त्यौहार मनाने का फैसला किया जिसमें कौवो को विशेष भोग लगाने की व्यवस्था की गयी। तभी से कुमाऊं में घुघुतिया त्यौहार के दिन आटे में गुड़ मिलाकर पक्षी की तरह के घुघुतों के आकार के स्वादिष्ट पकवानों की माला तैयार करने और कौओं को पुकारने की प्रथा प्रचलित है। कौए आदि पक्षियों से प्रेम करने का संदेश देने वाले इस ‘घुघुतिया ’ त्यौहार की परम्परा आज भी कुमाऊ अंचल में जीवित है।

 घुघुते बनाने के पीछे यह मान्यता भी है कि यह एक ऐसा व्यंजन है जो केवल उत्तरायणी के अवसर पर ही बनाया जाता है। इस व्यंजन को बनाने की विधि सरल है। सबसे पहले पानी गरम करके उसमें गुड़ डालकर चाश्नी बना ली जाती है, फ़िर आटा छानकर इसे आटे में मिलाकर गूंथ लिया जाता है। जब आटा रोटी बनाने की तरह तैयार हो जाता है तो आटे की करीब 6" लम्बी और अंगुलि की मोटाई वाली आकृतियों को हिन्दी के ४ की तरह मोड़कर नीचे से बंद कर दिया जाता है। इन ४ की तरह दिखने वाली आकृतियों को स्थानीय भाषा में ‘घुघुते’ कहते हैं। घुघुतों के साथ साथ इसी आटे से अन्य तरह की आकृतियाँ भी बनायी जाती हैं, जैसे, डमरू, सुपारी, टोकरी, तलवार, ढाल आदि। पर सामान्य रूप से इन सब पकवानों को ‘घुघुत’  नाम से ही जाना जाता है। घुघुते बनाने का क्रम दोपहर के बाद से शुरु हो जाता है जिसमें परिवार का हर सदस्य हिस्सा लेता है। 

आटे की आकृतियां बन जाने के बाद इनको सुखाने के लिए फ़ैलाकर रख दिया जाता है। रात तक जब घुघुते सूख कर थोड़ा ठोस हो जाते है तो उनको घी या वनस्पति तेल में पूरियों की तरह तला जाता है। किसी को भी तलते समय बात करने की मनाही रहती है। बच्चों को कहा जाता है कि अगर शोर करोगे तो घुघुते उड़ जायेंगे। घुघुतों को तलने के बाद इनकी माला बनायी जाती है, जिसमें मूंगफ़ली, मौसमी फ़ल जैसे सेव, नारंगी, अन्य मेवे भी पिरोये जाते हैं। घुघुतों की माला बनाने के बाद इनको अगले दिन कौओं खिलाने के लिए सुरक्षित रख दिया जाता है। एक विशेष बात यह रहती है कि घुघुते कौओं को खिलाने से पहले कोई नहीं खा सकता। कौओं को पितरों का प्रतीक मानकर यह पितरों को अर्पण की जाने वाली पूजा सामग्री मानी जाती है।

कुमाऊँ के अल्मोड़ा, चम्पावत, नैनीताल तथा उधमसिंह नगर जनपदीय क्षेत्रों में मकर संक्रान्ति को माघ मास के 1 गते को घुघुते बनाये जाते हैं और अगली सुबह 2 गते माघ को कौवे को दिये जाते हैं । वहीं रामगंगा पार के पिथौरागढ़ और बागेश्वर अंचल में मकर संक्रान्ति की पूर्व संध्या यानी पौष मास के अंतिम दिन अर्थात मासान्त को ही घुघुते बनाये जाते हैं और मकर संक्रान्ति अर्थात माघ 1 गते को कौवे को खिलाये जाते हैं। इसके बाद रिश्तेदारों तथा मित्रगणों के घर-घर घुघुते बांटने का सिलसिला शुरू होता है । जो सदस्य घर से दूर रहते हैं उनके लिए घुघुते पार्सल और कोरियर के माध्यम से भी भेजे जा सकते हैं। घुघुतिया के दिन घुघुते बनाने के बाद इनको दुबारा बसन्त पंचमी तक बनाया जा सकता है।

भारत में पशु पक्षियों से सम्बंधित कई पर्व मनाये जाते हैं पर कौओं के प्रति सौहार्द प्रकट करने वाले इस अनोखे त्यौहार को मनाने की प्रथा केवल उत्तराखण्ड के कुमाऊँ अंचल में ही प्रचलित है। वैसे कौए की चतुराई के बारे में कहावत है कि पक्षियों में कौआ सबसे बुद्धिमान होता है। कौए की चतुराई के बारे में कई वैज्ञानिक शोधों से भी यह सिद्ध हो चुका है कि कौए का मष्तिष्क अन्य पशु-पक्षियों से अधिक विकसित होता है।

 यह उत्तराखण्ड वासियों के लिए चिंता की बात है कि आज  हम अपनी लोक संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं तथा पक्षिप्रेम से जुड़े ऐसे पर्यावरणवादी पर्वों की अहमियत को भी महानगरीय ग्लैमर के दुष्र् भाव में आकर भूलाते जा रहे हैं। पर संतोष का विषय यह भी है कि महानगरों में रहने वाले अनेक प्रवासी जनों में यह ‘घुघुतिया ’ त्यौहार अभी भी बड़े उत्साह से मनाया जाता है।मेरे परिवार में मेरी मां के कहने पर ‘उत्तरायणी’के मौके पर ‘घुघुते’ बनाने की यह रीत अभी भी जारी है।मेरे परिवार जन भी ‘घुघुते’ बना रहे हैं। मेरा भांजा गणेश उपाध्याय ‘घुघुते’ बनाने के लिए आटा गूंथ रहा है और मेरी बहन ‘घुघुते’ उल्हाने की तैयारी कर रही है।आप सब भी ऊपर बताई गई सरल विधि से ‘घुघुते’ बना कर इस त्योहार को मनाएंगे तो आपको पता चलेगा कि इन घुघुतों का आस्वाद कितना मधुर होता है और उससे भी अधिक आनन्ददायी होता है पहाड़ की लोकसंस्कृति से जुड़ने का सुख।
 समस्त देशवासियों को मकर संक्रान्ति, उत्तरायणी और ‘घुघुतिया ’ त्यौहार की शुभकामना-

 “काले कवा काले, घुघुती मावा खा ले” 
✍🏻डा.मोहन चन्द तिवारी
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