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मृत्यु भोज

मृत्यु भोज
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         अभी हाल के दिनों में ये शब्द बडी सुर्खियों में है।कहीं-कहीं से ऐसा भी सुनने में आ रहा है कि इस परंपरा पर सरकार रोक लगा रही ओ भी कानून बनाकर।सुनकर  मुझे अफसोस भी होता है और खीझ भी आता है।आईये हम इस पर विचार करते है।
               मृत्यु भोज शब्द कहीं भी हमारे धर्म,संप्रदाय और शास्त्रों में नहीं आया है।न तो यह शब्द लोक शास्त्र में है और न समाज शास्त्र में।यह शब्द पूर्णतः मनगढंत है।यह उन लोगों के द्वारा रचित और बहुप्रचारित शब्द है जो सनातन परंपरा को जीवित देखना नहीं चाहते हैं।
               हमारे समाज में 'मृत्यु भोज' की अवधारणा नहीं है।इसके लिए हमारे धर्म,समाज और शास्त्र में श्राद्धा नाम दिया गया है।यह विशेषण शब्द है।जो व्याकरण शास्त्र की जानकारी रखते है वे जानते हैं कि यह श्रद्धा शब्द से संयुक्त है।इसके मूल में श्रद्धा है।
                       आब लगे हाथ श्रद्धा को देख लेते हैं।ये श्रद्धा जो है वह विश्वास की पत्नी है।बिना विश्वास का श्रद्धा हो हीं नहीं सकती है।हमारे धर्म शास्त्र में ये बात बताई गई है कि अपने पूर्वजों के निमित्त किये गये कर्म श्राद्ध हैं।श्राद्ध देव भगवान सूर्य के बेटे है और उन्हीं श्राद्ध देव की पत्नी है श्रद्धा।अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करना हमारा धर्म भी है तथा कर्तव्य भी है।
             हमारे मनिषियों ने कहा है 'जो देवताओं की पूजा नहीं करता है।अपने पूर्वजों का श्राद्ध नहीं है एवं अपने से बडे लोगों का आदर सत्कार नहीं करता है लोग उसे मूर्ख और अज्ञानी कहते हैं।' आज के इस तथाकथित प्रगतिशील दौर में मूर्खों की कमी नहीं है।जीसे देखिए बस वही स्वघोषित जगद्गुरु बन जा रहा है।पथप्रदर्शक बन जा रहा और अपनी मनमर्जी धर्म की आड में परोस रहा है।हमारे कुछ लोग उनके इस कुचक्र में फसकर अपना लोक और परलोक दोनों का नाश कर रहे हैं।
               आज हमसब जो कुछ भी हैं अपने पूर्वजों के पूण्य प्रताप के बदौलत है।उन्हीं का आशिर्वाद या कोप का परिणाम होता है।आज जो हम सुखी-समपन्न या व्यग्र-विपन्न हैं सब उसीका फलाफल है।अब इसपर विश्वास करना न करना आपके बस में है।झब इसपर विश्वास होगा तभी श्रद्धा होगी और जब श्रद्धा होगी तभी श्राद्ध होगा।जब श्राद्ध होगा तभी हमारे पितृगण हमें अपने आशीर्वचनों से अभिसिंचित करेंगें।उनका अनुग्रह हमे मिलेगा।नहीं तो हमारे घर परिवार में पितृदोष होगा।जो हमारे सुखमय जीवन को ग्रस लेगा।
          ये पितृदोष क्या है?बहुत कम लोग जानते है।पर जो जानते है वे हीं जानते हैं बाकि तो सब अंजान हैं।और वही अजान लोग हमारी साश्वत श्राद्ध कर्म को मृत्यु भोज नाम देकर विकृत कर रहे हैं।मृत्यु में भोज होता हीं नहीं है।ये तो शब्द हीं गलत हैं।
     हाँ अभी नवधनाढ्य वर्ग में एक नई व्यवस्था का सूत्रपात विगत कुछ दिनों से देखने सुनने में आया वह यह की कोई परिवार गरीबी से उपर उठा हुआ है।उसके घर में दो चार लोग कमाने वाले हो गये हैं यदि उनके घर में किसी की मृत्यु हो जाती है तो वे लोग दो-चार गाडी पर अपने गाँव घर के लोग को ले जाते हैं।जबकि पहले जो लोग उसके घर जाना भी ठीक नहीं समझते थे वे सब भोज के नाम पर चले जाते हैं दाह संस्कार करने।वहां दाह संस्कार कर्म तो कम पर एक नया और कृत्रिम उत्सवी माहौल बनाया जाता है।जब चिता जल जाती है तब वे लोग खुब छककर छप्पन भोग लगाते हैं।अभी के समय में तो लोग मांस-मदिरा तक आ गये हैं।लोग खुद हीं ऐसा खुब कर रहे हैं कि फिर कभी किसी को कहने की जरूरत न पडे और लोग खुद-व-खुद हीं मृत्यु भोज के नाम पर चलें आयें।
         ऐसा हो रहा है।खुब हो रहा है पर उन लोगों के द्वारा जीसे कुछ भी जानकारी नहीं है।फिर सारा दोष धर्म और शास्त्र पर।अपनी मनमानी और कह दें शास्त्रों की।ये कौन सी बात है।मैं खुद हीं ऐसे कुकृत्य की निंदा करता हूँ।ऐसे मृत्यु भोज रुके और रुकना भी चाहिए।गलत का विरोध हो तो कोई बात नहीं है।बिरोध का बिरोध तो जायज है।पर श्रद्धा का बिरोध हो श्राद्ध का बिरोध हो।पूर्वजों के प्रति जो हमारा कर्तव्य कर्म हो उसका बिरोध हो ये सरासर गलत है।मैं इस कुत्सित प्रयास का निंदा करता हूं।
         लोक विरुद्ध आचरण का बिरोध हो।धर्म बिरुद्ध आचरण का बिरोध हो।कर्म बिरुद्ध आचरण का बिरोध हो।समय बिरुद्ध और नीति बिरुद्ध बातों का भी बिरोध होना चाहिए।सिर्फ किसी खास का बिरोध करने के लिए बिरोध मत करो नहीं तो वह बिरोध नहीं बल्कि कुत्सित प्रयास के दायरे में आयेगा।इसीलिए मैं कहा करता हूँ----'विद्वानों की मूर्खता ने हमारे धर्म को नाश दिया।'
                          
      ----:भारतका एक ब्राह्मण.
         संजय कुमार मिश्र "अणु"
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